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यदा॑पि॒पेष॑ मा॒तरं॑ पु॒त्रः प्रमु॑दितो॒ धय॑न्। ए॒तत्तद॑ग्नेऽअनृ॒णो भ॑वा॒म्यह॑तौ पि॒तरौ॒ मया॑। स॒म्पृच॑ स्थ॒ सं मा॑ भ॒द्रेण॑ पृङ्क्त वि॒पृच॑ स्थ॒ वि मा॑ पा॒प्मना॑ पृङ्क्त ॥११ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। आ॒पि॒पेषेत्या॑ऽपि॒पेष॑। मा॒तर॑म्। पु॒त्रः। प्रमु॑दित॒ इति॒ प्रऽमु॑दितः। धय॑न्। ए॒तत्। तत्। अ॒ग्ने॒। अ॒नृ॒णः। भ॒वा॒मि॒। अह॑तौ। पि॒तरौ॑। मया॑। स॒म्पृच॒ इति॒ स॒म्ऽपृचः॑। स्थ॒। सम्। मा॒। भ॒द्रेण॑। पृ॒ङ्क्त॒। वि॒पृच॒ इति॑ वि॒ऽपृचः॑। स्थ॒। वि। मा॒। पा॒प्मना॑। पृ॒ङ्क्त॒ ॥११ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:11


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सन्तानों को अपने माता-पिता के साथ कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! (यत्) जो (प्रमुदितः) अत्यन्त आनन्दयुक्त (पुत्रः) पुत्र दुग्ध को (धयन्) पीता हुआ (मातरम्) माता को (आपिपेष) सब ओर से पीड़ित करता है, उस पुत्र से मैं (अनृणः) ऋणरहित (भवामि) होता हूँ, जिससे मेरे (पितरौ) माता-पिता (अहतौ) हननरहित और (मया) मुझ से (भद्रेण) कल्याण के साथ वर्त्तमान हों। हे मनुष्यो ! तुम (सम्पृचः) सत्यसम्बन्धी (स्थ) हो, (मा) मुझ को कल्याण के साथ (सम्, पृङ्क्त) संयुक्त करो और (पाप्मना) पाप से (विपृचः) पृथक् रहनेहारे (स्थ) हों, इसलिये (मा) मुझे भी इस पाप से (विपृङ्क्त) पृथक् कीजिये और (तदेतत्) परजन्म तथा इस जन्म के सुख को प्राप्त कीजिये ॥११ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे माता-पिता पुत्र का पालन करते हैं, वैसे पुत्र को माता-पिता की सेवा करनी चाहिये। सब मनुष्यों को इस जगत् में यह ध्यान देना चाहिये कि हम माता-पिता का यथावत् सेवन करके पितृऋण से मुक्त होवें। जैसे विद्वान् धार्मिक माता-पिता अपने सन्तानों को पापरूप आचरण से पृथक् करके धर्माचरण में प्रवृत्त करें, वैसे सन्तान भी अपने माता-पिता को वर्त्ताव करावें ॥११ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सन्तानैः पितृभ्यां सह कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(यत्) यः (आपिपेष) समन्तात् पिनष्टि (मातरम्) जननीम् (पुत्रः) (प्रमुदितः) प्रकृष्टत्वेन हर्षितः (धयन्) दुग्धं पिबन् (एतत्) वर्त्तमानं सुखम् (तत्) (अग्ने) विद्वन् (अनृणः) अविद्यमानं ऋणं यस्य सः (भवामि) (अहतौ) न हितौ हिंसितौ (पितरौ) माता-पिता च द्वौ (मया) अपत्येन (सम्पृचः) ये सम्पृचन्ति ते (स्थ) भवत (सम्) (मा) माम् (भद्रेण) भजनीयेन व्यवहारेण (पृङ्क्त) बध्नीत (विपृचः) ये वियुञ्जते वियुक्ता भवन्ति ते (स्थ) (वि) (मा) (पाप्मना) पापेन (पृङ्क्त) संसर्गं कुरुत ॥११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने विद्वन् ! यद्यः प्रमुदितः पुत्रो दुग्धं धयन् मातरमापिपेष, तेन पुत्रेणानृणो भवामि, यतो मे पितरावहतौ मया भद्रेण सह वर्त्तमानौ च स्याताम्। हे मनुष्याः। यूयं सम्पृचः स्थ, मा भद्रेण सम्पृङ्क्त पाप्मना विपृचः स्थ, माप्यैतेन विपृङ्क्त, तदेतत् सुखं प्रापयत ॥११ ॥
भावार्थभाषाः - यथा मातापितरौ पुत्रं पालयतस्तथा पुत्रेण मातापितरौ सेवनीयौ। सर्वैरत्रेदं ध्येयं वयं मातापितरौ सेवित्वा पितृऋणान्मुक्ता भवेमेति। यथा विद्वांसौ धार्मिकौ पितरौ स्वापत्यानि पापाचरणाद् वियोज्य धर्माचरणे प्रवर्त्तयेयुस्तथा सन्ताना अपि पितॄन्नेवं वर्त्तयेरन् ॥११ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माता-पिता जसे पुत्राचे पालन करतात तसे पुत्रानेही माता व पिता यांची सेवा केली पाहिजे. या जगातील सर्व माणसांनी हे लक्षात ठेवले पाहिजे की, आपण माता व पिता यांची यथायोग्य सेवा करून पितृऋणातून मुक्त व्हावे. ज्याप्रमाणे विद्वान धार्मिक माता-पिता आपल्या संतानांना पापरूपी आचरणापासून पृथक करून धर्माचरणात प्रवृत्त करतात तसे संतानानीही वागावे.